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आपराधिक कानून
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 - उच्च न्यायालय की शक्तियां और परिसीमाएँ
« »23-Dec-2025
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उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम मोहम्मद अरशद खान एवं अन्य (2024) "अन्वेषण में हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए अथवा यह मत व्यक्त करते हुए कि अन्वेषण पर स्थगन देना उपयुक्त नहीं है, उसके साथ-साथ पुलिस को यह निदेश देना कि अन्वेषण पूर्ण होने तक कोई गिरफ्तारी न की जाए, सर्वथा अकल्पनीय एवं अविचारणीय है।" न्यायमूर्ति संजय करोल और एन. कोटिस्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति संजय करोल और एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम मोहम्मद अरशद खान और अन्य (2024) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दिया, जिसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने से इंकार करते हुए, अन्वेषण पूर्ण करने के लिये एक निश्चित समय सीमा अधिरोपित की गई थी और संज्ञान लिये जाने तक अभियुक्त को गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया गया था।
उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम मोहम्मद अरशद खान एवं अन्य (2024) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- STF (विशेष कार्य बल) के अन्वेषण के बाद मई 2024 में आगरा में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
- अभियुक्त पर विभिन्न तरीकों से कपटपूर्वक कई हथियार लाइसेंस प्राप्त करने का अभिकथन है, जिनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं:
- कूटरचित आधार कार्ड, पैन कार्ड और शपथ पत्र जमा करना।
- जन्मतिथि में मिथ्याकरण करके स्वयं को कुशल निशानेबाज के रूप में प्रस्तुत करना।
- अभियुक्त में से एक सेवानिवृत्त आयुध क्लर्क था, जो कथित तौर पर कपटपूर्वक प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने में शामिल था।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 (छल), 467 (मूल्यवान प्रतिभूति की कूटरचना), 468 (छल के प्रयोजन से कूटरचना) और 471 (कूटरचित दस्तावेज़ को असली के रूप में उपयोग में लाना) सहित गंभीर अपराधों के साथ-साथ आयुध अधिनियम के प्रावधानों का भी उल्लेख किया गया है।
- अभियुक्तों ने संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख किया।
- उच्च न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने से इंकार कर दिया , परंतु दो प्रमुख निदेशों के साथ समान शब्दों में आदेश पारित किये:
- अन्वेषण अधिकारी को 90 दिनों के भीतर अन्वेषण पूरी करने का निदेश दिया गया।
- अभियुक्त को विचारण न्यायालय द्वारा संज्ञान लिये जाने तक गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया।
- ये निदेश शोभित नेहरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में उच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय पर आधारित थे।
- इन निदेशों से असंतुष्ट होकर, राज्य ने नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021) के निर्णय का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय का रुख किया।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
"गिरफ्तारी नहीं" (No Arrest) संरक्षण पर:
- पीठ ने नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021) के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि किसी याचिका को खारिज करते समय "गिरफ्तारी नहीं" या कोई दमनात्मक कदम नहीं” जैसे आदेश पारित करना, अग्रिम जमानत हेतु निर्धारित कठोर विधिक मानकों का अनुपालन किये बिना वस्तुतः अग्रिम जमानत प्रदान करने के समान है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसे आदेश "अकल्पनीय और असंभव" हैं।
- न्यायालय ने नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर के हवाले से कहा: "अन्वेषण पूर्ण होने तक पुलिस को गिरफ्तारी न करने का निदेश देते हुए, हस्तक्षेप करने से इंकार करना या यह राय व्यक्त करना कि अन्वेषण पर रोक लगाना उचित नहीं है, बिल्कुल अकल्पनीय और असंभव है।"
- न्यायालय ने यह माना कि उच्च न्यायालय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने से इंकार करते हुए "गिरफ्तारी न करने" या "दबावपूर्ण कदम न उठाने" के निदेश नहीं दे सकते, क्योंकि ऐसे आदेश सांविधिक आवश्यकताओं को पूरा किये बिना अग्रिम जमानत देने के समान हैं।
अन्वेषण की समयसीमा के संबंध में:
- पीठ ने कहा कि विलंब के किसी भी साक्ष्य के बिना, शुरुआत में ही समय सीमा अधिरोपित करना जल्दबाजी होगी और यह कार्यपालिका कार्यों पर अतिक्रमण होगी।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायिक रूप से अधिरोपित समयसीमा केवल असाधारण परिस्थितियों में और केवल तभी निर्देशित की जा सकती है जब अभिलेख में ऐसी सामग्री विद्यमान हो जो अन्वेषण में अनुचित विलंब या गतिरोध को दर्शाती हो।
- न्यायालय ने टिप्पणी की: "न्यायालय द्वारा निर्धारित समयसीमा का पालन अन्वेषणकर्त्ताओं/कार्यपालिका द्वारा शुरू से ही नहीं किया जाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करना स्पष्ट रूप से कार्यपालिका के हितों का हनन करने के समान होगा।"
- न्यायालय ने संक्षेप में कहा: "इसलिये समयसीमाएँ प्रतिक्रियात्मक रूप से अधिरोपित की जाती हैं, न कि निवारक रूप से।"
अंतिम निदेश:
- उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 90 दिन की अन्वेषण की समय सीमा और गिरफ्तारी से दिये गए पूर्ण संरक्षण दोनों को अपास्त कर दिया।
- राज्य की अपील स्वीकार कर ली गई।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482/भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 क्या है?
बारे में :
- यह धारा पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत आती थी।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के संरक्षण से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिये या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हो।
- यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है, अपितु यह केवल इस तथ्य को मान्यता देती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियां हैं।
उद्देश्य:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 में यह निर्धारित किया गया है कि अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग कब किया जा सकता है।
- इसमें उन तीन उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है जिनके लिये अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है:
- संहिता के अंतर्गत किसी भी आदेश को प्रभावी बनाने के लिये आवश्यक आदेश देना।
- किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये।
- न्याय के उद्देश्यों को सुनिश्चित करने के लिये।
उच्च न्यायालयों द्वारा कार्यवाही रद्द करने की शक्तियों पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय कौन-कौन से हैं?
- आनंद कुमार मोहत्ता बनाम राज्य [दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी] (2018):
- इस मामले में न्यायालय ने यह निणर्य दिया कि उच्च न्यायालय के पास कार्यवाही में हस्तक्षेप करने और आरोपपत्र दाखिल करने के बाद भी अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की शक्ति है।
- जिथा संजय और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (2023)
- केरल उच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट किया कि यदि आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण, निराधार या किसी गुप्त उद्देश्य से प्रेरित पाई जाती है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकते हैं, भले ही प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में अपराध के मिथ्या अभिकथन हों। न्यायालय ने यह भी कहा कि बाहरी उद्देश्यों वाले परिवादकर्त्ता प्रथम सूचना रिपोर्ट में आवश्यक तत्त्व शामिल करने के लिये उसे मनगढ़ंत बना सकते हैं।
- श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार) और अन्य (2024):
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक वैवाहिक मामले को रद्द कर दिया, जिसमें एक पति ने अपनी पत्नी द्वारा 2018 में दण्ड प्रक्रिया संहिता और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को अमान्य घोषित करने की मांग की थी।
- मामा शैलेश चंद्र बनाम उत्तराखंड राज्य (2024):
- इस मामले में यह निर्णय दिया गया कि भले ही आरोपपत्र दाखिल कर दिया गया हो, फिर भी न्यायालय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), आरोपपत्र और अन्य दस्तावेज़ों के आधार पर यह परीक्षा कर सकता है कि कथित अपराध प्रथम दृष्टया सिद्ध हुए हैं या नहीं।