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सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के अधीन द्वितीय अपील की स्थिरता

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 10-Nov-2025

तारकेश्वर पांडे बनाम दीनानाथ यादव एवं अन्य

“न्यायालय ने प्रकीर्ण अपील में पारित आदेश के विरुद्ध दायर द्वितीय अपील को खारिज कर दिया तथा स्पष्ट किया कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 केवल डिक्री पर लागू होती है, आदेशों पर नहीं ।”

न्यायमूर्ति डॉ. योगेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

तारकेश्वर पांडे बनाम दीनानाथ यादव एवं अन्य (2025) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डॉ. योगेंद्र कुमार श्रीवास्तव ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 100 के अधीन दायर द्वितीय अपील को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि ऐसी अपीलें केवल अपील में पारित डिक्री के विरुद्ध ही पोषणीय हैं, धारा 104(1) के अधीन प्रकीर्ण अपीलों में पारित आदेशों के विरुद्ध नहीं।

तारकेश्वर पांडे बनाम दीनानाथ यादव एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता (वादी) ने विचारण न्यायालय में व्यादेश की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया था, जिसे 25 जुलाई, 2023 को नामंजूर कर दिया गया था।
  • इस नामंजूरी के विरुद्ध अपीलकर्त्ता ने जिला न्यायाधीश, बलिया के समक्ष धारा 104(1) सहपठित आदेश 43 नियम 1(द) के अंतर्गत सिविल अपील दायर की ।
  • जिला न्यायाधीश ने 20 मार्च, 2025 को सिविल अपील को खारिज कर दिया, तथा व्यादेश आवेदन को खारिज करने के विचारण न्यायालय के आदेश की पुष्टि की।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने जिला न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के अधीन द्वितीय अपील दायर की।
  • स्टाम्प रिपोर्टर ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें कहा गया कि यह अपील अनुपोषणीय प्रतीत होती है, क्योंकि यह एक प्रकीर्ण अपील में पारित आदेश के विरुद्ध दायर की गई थी।
  • अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि चूँकि विवादित आदेश अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करने वाले न्यायालय द्वारा पारित किया गया था, इसलिये सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के अधीन द्वितीय अपील पोषणीय होगी।
  • प्रत्यर्थी के अधिवक्ता ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 केवल अपील में पारित आदेशों पर लागू होती है, प्रकीर्ण अपीलों में पारित आदेशों पर नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?

  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन 'डिक्री' और 'आदेश' अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। एक डिक्री (धारा 2(2)) किसी वाद में पक्षकारों के अधिकारों का निश्चायक रूप से अवधारण करता है, जबकि एक आदेश (धारा 2(14)) कोई भी निर्णय होता है जो डिक्री नहीं है।
  • न्यायालय ने माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 में स्पष्ट रूप से उपबंध है कि द्वितीय अपील केवल अपील में पारित डिक्री के विरुद्ध ही की जा सकती है , आदेशों के विरुद्ध नहीं। भाषा स्पष्ट और सुस्पष्ट है।
  • आदेश 43 नियम 1 धारा 104(1) के अंतर्गत अपील योग्य आदेशों को निर्दिष्ट करता है। यद्यपि, धारा 104(2) एक पूर्ण प्रतिबंध लगाती है, जिसमें कहा गया है: "इस धारा के अंतर्गत अपील में पारित किसी भी आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकेगी।" इसका अर्थ है कि प्रकीर्ण अपीलों में पारित आदेशों के विरुद्ध कोई द्वितीय प्रकीर्ण अपील और धारा 100 के अंतर्गत कोई द्वितीय अपील नहीं है।
  • चूँकि आक्षेपित आदेश धारा 104(1) के अंतर्गत आदेश 43 नियम 1(द) के साथ एक प्रकीर्ण अपील में पारित किया गया था, इसलिये यह डिक्री नहीं है। अतः द्वितीय अपील पोषणीय नहीं थी।
  • अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने उचित विधिक उपचार अपनाने की स्वतंत्रता के साथ अपील वापस लेने की अनुमति मांगी। तदनुसार, न्यायालय ने अपील खारिज कर दी।

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 क्या है?

सांविधिक उपबंध:

  • सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पारित अपीलीय डिक्री के विरुद्ध उच्च न्यायालय में द्वितीय अपील का उपबंध करती है।
  • अपील तभी संभव है जब उच्च न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो कि मामले में विधि का कोई सारवान् प्रश्न अंतर्वलित है।
  • अपील के ज्ञापन में संबंधित विधि के सारवान् प्रश्न को स्पष्ट अंतर्वलित होना चाहिये।
  • संतुष्ट होने पर, उच्च न्यायालय विधि का सारवान् प्रश्न तैयार करेगा।
  • अपील की सुनवाई निर्धारित प्रश्न पर की जाती है, यद्यपि न्यायालय को आवश्यकता पड़ने पर विधि के अन्य सारवान् प्रश्नों पर भी सुनवाई करने का अधिकार है।

अधिकारिता की प्रकृति और दायरा:

  • अपील का कोई निहित अधिकार तब तक विद्यमान नहीं है जब तक कि विधि में इसके लिये उपबंध न हो।
  • प्रथम अपील न्यायालय को तथ्यों के आधार पर अंतिम न्यायालय घोषित किया गया है।
  • उच्च न्यायालय साक्ष्य या तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकता जब तक कि इसमें कोई विधि का सारवान् प्रश्न अंतर्वलित न हो।
  • उच्च न्यायालय को तथ्यों के निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने की कोई अधिकारिता नहीं है, चाहे त्रुटि कितनी भी बड़ी क्यों न हो।
  • उच्च न्यायालय प्रथम अपील का द्वितीय न्यायालय नहीं है।

ऐतिहासिक संदर्भ:

  • 1976 में धारा 100 में संशोधन किया गया, जिससे उच्च न्यायालय की अधिकारिता पर कठोर निर्बंधन अधिरोपित कर दिये गए।
  • 1976 से पहले भी प्रिवी काउंसिल प्रथम अपीलीय न्यायालय को तथ्यों के आधार पर अंतिम मानती थी।
  • संशोधन का उद्देश्य उच्च न्यायालयों को विधि के सारवान् प्रश्नों के बिना द्वितीय अपीलों का निपटारा करने से रोकना था।

अनिवार्य आवश्यकताएँ:

  • अपीलकर्त्ता को अपील ज्ञापन में विधि का सारवान् प्रश्न तैयार करना होगा (उपधारा 3)।
  • उच्च न्यायालय को विधि के सारवान् प्रश्न को स्पष्ट रूप से और विशिष्ट रूप से तैयार करना होगा (उपधारा 4)।
  • अपील की सुनवाई केवल निर्धारित प्रश्न पर ही की जानी चाहिये (उपधारा 5)।
  • सांविधिक आदेश को पूरा किये बिना अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करने से निर्णय अकृत हो जाता है।

हस्तक्षेप के लिये प्रतिषिद्ध आधार:

  • उच्च न्यायालय तथ्यों के निष्कर्षों को अपास्त नहीं कर सकता और साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकता।
  • केवल इसलिये हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता क्योंकि निष्कर्ष साक्ष्य के वजन के विरुद्ध हैं।
  • केवल इसलिये हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने विचारण न्यायालय के तर्क पर विस्तार से विचार नहीं किया।
  • तथ्यों के गलत निष्कर्षों के आधार पर द्वितीय अपील पर विचार नहीं किया जा सकता।

अनुपालन न करने के परिणाम:

  • विधि का सारवान् प्रश्न तैयार किये बिना स्वीकृत की गई द्वितीय अपील अपास्त किये जाने योग्य है।
  • उच्च न्यायालय में मामला वापस नहीं भेजा जाएगा, क्योंकि अपीलकर्त्ता अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा न करने की अपनी गलती से लाभ नहीं उठा सकते।
  • उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना दिया गया निर्णय कायम नहीं रखा जा सकता।

अपवाद और लचीलापन

  • एकपक्षीय रूप से पारित अपीलीय डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकेगी (उपधारा 2) ।
  • उच्च न्यायालय मूल रूप से तैयार नहीं किये गए अन्य सारवान् विधि के प्रश्नों पर अभिलिखित कारणों के साथ अपील की सुनवाई कर सकता है (उपधारा 5 का उपबंध) ।
  • सारवान् प्रश्न का निर्माण वास्तव में विचारित और निर्णय किये गए प्रश्नों से अनुमान लगाया जा सकता है, यद्यपि इस दृष्टिकोण की आलोचना की गई है।