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आपराधिक कानून

सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 की संज्ञेय प्रकृति

 16-Dec-2025

कामरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 

"सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 एक संज्ञेय अपराध है क्योंकि यह पुलिस अधिकारियों को बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने का अधिकार देती हैजो इसे धारा और के अधीन असंज्ञेय अपराधों से अलग करती है।" 

न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह ने कामरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025)के मामले मेंसार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 के अधीन कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दियायह मानते हुए कि यह एक संज्ञेय अपराध है जहाँ पुलिस मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति के बिना अन्वेषण कर सकती है। 

कामरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • दिनांक 8.12.2019 को सिकंदरा पुलिस थानेजिला आगरा में सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 के अधीन Crime No. 1025/2019 के रूप में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। 
  • पुलिस ने आवेदक और सह-अभियुक्त को एक पार्क में कथित तौर पर ताश खेलते हुए गिरफ्तार किया और उनके पास से 750 रुपए बरामद किये गए। 
  • अन्वेषण अधिकारी ने सूचनाकर्त्ता और साक्षियों के कथनों को अभिलिखित किया और द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन 21.12.2019 को आरोप पत्र प्रस्तुत किया। 
  • माननीय मजिस्ट्रेट ने दिनांक 24.02.2020 के आदेश द्वारा अपराध का संज्ञान लिया। 
  • आवेदक नेभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन संपूर्ण कार्यवाहीआरोप पत्र और समन आदेश को रद्द करने के लिये एक आवेदन दायर किया। 
  • आवेदक के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश में द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीनपहले अपराध के लिये अधिकतम दण्ड एक मास का कठोर कारावास और 250 रुपए से अधिक का जुर्माना नहीं हैजिससे यह एक असंज्ञेय अपराध बन जाता है। 
  • अधिवक्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की अनुसूची भाग II पर विश्वास कियाजो तीन वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराधों को असंज्ञेयजमानतीय और मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय के रूप में वर्गीकृत करता है।  
  • राज्य के अधिवक्ता ने आवेदन का विरोध करते हुए तर्क दिया कि द्यूत अधिनियम की धारा 13 एक संज्ञेय अपराध हैजो इसे धारा 3/4 से अलग करती हैऔर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का दर्ज करना और अन्वेषण विधिक रूप से वैध था 

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि उत्तर प्रदेश में द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन आरोप पत्र दायर किया गया थाजिसमें प्रथम अपराध के लिये अधिकतम एक मास का कारावास और 250 रुपए से अधिक का जुर्माना नहीं लगाया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि उत्तर प्रदेश ने उत्तर प्रदेश अधिनियम संख्या 21, 1961 (07.09.1961 से प्रभावी) के माध्यम से धारा 13 में दण्ड को बढ़ा दिया था। 
  • उत्तर प्रदेश के लिये संशोधित धारा 13 के अधीनप्रथम बार अपराध करने वालों पर 50 रुपए से 250 रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है और उन्हें एक मास तक का कठोर कारावास दिया जा सकता हैजबकि पश्चात्वर्ती अपराधों में 100 रुपए से 500 रुपए तक का जुर्माना और एक मास से छह मास तक का कठोर कारावास हो सकता है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 13 की भाषा "एक पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकता है" से शुरू होती है, जो स्पष्ट रूप से बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने के लिये पुलिस के अधिकार को इंगित करती है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि संज्ञेय अपराधों मेंएक पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता हैजबकि असंज्ञेय अपराधों मेंएक पुलिस अधिकारी को बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने का कोई अधिकार नहीं है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि द्यूत अधिनियम की धारा 13 पुलिस अधिकारियों को बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने का अधिकार देती हैइसलिये इसेअसंज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने माना कि पुलिस को द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने और मामलों का अन्वेषण करने का अधिकार हैऔर माननीय मजिस्ट्रेट नेपुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लेने में कोई अवैधता या अनियमितता नहीं की। 
  • न्यायालय ने आवेदन को योग्यताहीन मानते हुएखारिज कर दियायह पाते हुए कि आवेदक द्वारा जिन निर्णयों पर विश्वास किया गया थावे तथ्यों के आधार पर पूरी तरह से भिन्न थे। 
  • न्यायालय ने विचारण न्यायालय को निदेश दिया कि वह अपराध के लिये दण्ड को ध्यान में रखते हुएआदेश की प्रमाणित प्रति प्रस्तुत किये जाने की तारीख से तीन मास के भीतर विचारण को शीघ्रता से समाप्त करे। 

संज्ञेय और असंज्ञेय अपराधों में क्या अंतर है? 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2() (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 2(1)())"संज्ञेय अपराध" को ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करती है जिसके लिये पुलिस अधिकारी प्रथम अनुसूची के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अनुसार बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकता है। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 2(1)()) "असंज्ञेय अपराध" को ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करती है जिसके लिये किसी पुलिस अधिकारी को वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है। 

सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 क्या है? 

 बारे में: 

  • सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 औपनिवेशिक काल की एक विधि है जो भारत में सार्वजनिक जुआ और सार्वजनिक जुआघरों के संचालन पर रोक लगाता है। राज्य द्वारा किये गए संशोधनों के साथ यह विधि आज भी लागू है। 

मुख्य परिभाषा: 

  • एक "आम जुआघर"कोई भी ऐसा परिसर है जहाँ जुए के उपकरण (ताशपासेमेज) मालिक के लाभ के लिये रखे या उपयोग किये जाते हैंचाहे वह उपकरणों के उपयोग के लिये पैसे लेकर हो या परिसर के उपयोग के लिये जगह लेकर हो। 

प्रमुख प्रावधान: 

संचालकों के लिये शास्ति (धारा 3): 

  • जुआघर चलाने वाला मालिक/किराएदार। 
  • कोई भी व्यक्ति जो जानबूझकर अपनी संपत्ति को जुए के लिये प्रयोग करने की अनुमति देता है। 
  • कोई भी व्यक्ति जो जुआ संचालन का प्रबंधन करता है या उसमें सहायता करता है। 
  • कोई भी व्यक्ति जो जुए की क्रियाकलापों को वित्तपोषित करता है। 
  • दण्ड: 200 रुपए तक का जुर्माना या महीने तक का कारावास 

जुआरियों के लिये शास्ति (धारा 4): 

  • जुआघर में जुआ खेलते हुए या जुआ खेलने के उद्देश्य से मौजूद पाए जाने वाला कोई भी व्यक्ति। 
  • उपधारणा:जुआघर में पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को तब तक जुआ खेलने के लिये ही वहाँ मौजूद माना जाता है जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए। 
  • दण्ड: ₹100 तक का जुर्माना या मास तक का कारावास। 

पुलिस शक्तियां (धारा 5-6): 

मजिस्ट्रेट या वरिष्ठ पुलिस अधिकारी निम्नलिखित कार्य कर सकते हैं: 

  • संदिग्ध जुआघरों में प्रवेश करें और तलाशी लें (दिन हो या रातआवश्यकता पड़ने पर बल का प्रयोग करें)। 
  • वहाँ मौजूद सभी लोगों को गिरफ्तार करेंचाहे वे सक्रिय रूप से जुआ खेल रहे हों या नहीं। 
  • जुए के सभी उपकरणधन और कीमती सामान अभिगृहीत करें। 
  • जुए के उपकरण मिलना इस बात का सबूत है कि वह जगह जुआघर है। 

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रावधान: 

  • मिथ्या पहचान (धारा 7): ₹500 तक का जुर्माना या मास का कारावास। 
  • उपकरणों को नष्ट करना (धारा 8): अभिगृहीत किये गए जुआ उपकरणों को नष्ट किया जाना चाहिये 
  • दांव के सबूत की आवश्यकता नहीं (धारा 9): दोषसिद्धि के लिये यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि लोगों ने पैसे के लिये जुआ खेला था। 
  • साक्षियों को संरक्षण (धारा 11): सत्य परिसाक्ष्य देने वाले सूचनाकर्त्ता को अभियोजन से छूट प्राप्त है। 
  • कौशल पर आधारित खेलों को छूट (धारा 12): यह अधिनियम विशुद्ध रूप से कौशल पर आधारित खेलों पर लागू नहीं होता है। 

सार्वजनिक जुआ (धारा 13): 

पुलिस बिना वारण्ट के किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है: 

  • सार्वजनिक स्थानों (सड़कोंमुख्य मार्गों) पर ऐसे खेल खेलना जिनमें कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • सार्वजनिक स्थानों पर जानवरों/पक्षियों को आपस में लड़वाना। 
  • दण्ड: ₹50 तक का जुर्माना या मास तक का कारावास।  

राज्य संशोधन: 

उत्तर प्रदेश नेनिम्नलिखित प्रावधान जोड़े: 

  • अपराधों का शमन:विशेष अधिकारी न्यायालय के बाहर मामलों का निपटारा कर सकते हैं। 
  • विचारणों का समापन: 31 दिसंबर, 2015 से पहले लंबित कुछ छोटे जुए से संबंधित विचारणों को बंद कर दिया गया। 

सांविधानिक विधि

विशेष अनुमति याचिकाओं की पोषणीयता

 16-Dec-2025

कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक पेंशनर्स वेलफेयर एसोसिएशन (रजिस्ट्रीकृत) और अन्य 

"एक बार जब किसी विशेष अनुमति याचिका को न्यायालय में दोबारा जाने की स्वतंत्रता के बिना वापस ले लिया जाता हैऔर उच्च न्यायालय के समक्ष पश्चात्वर्ती पुनर्विचार असफल हो जाती हैतो उसी आदेश को चुनौती देने वाली कोई और विशेष अनुमति याचिका पोषणीयता नहीं होती है।" 

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों 

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ नेकांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक पेंशनर्स वेलफेयर एसोसिएशन (रजिस्ट्रीकृत) और अन्य (2025) के मामले मेंविशेष अनुमति याचिका को पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दियाइस बात पर बल देते हुए कि पक्षकार न्यायालय से विशेष अनुमति के बिना पिछली कार्यवाही वापस लेने के बाद उसी आदेश को बार-बार चुनौती नहीं दे सकते। 

कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक पेंशनर्स वेलफेयर एसोसिएशन (रजिस्ट्रीकृत) और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • 15.05.2012 को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने पेंशन संबंधी विवाद्यकों के बारे में CWP No.1679/2010 पर निर्णय देते हुए ऐसे निदेश जारी किये जिनसे बैंक और पेंशनभोगी संघ दोनों नाराज हो गए। 
  • 03.09.2014 कोखण्ड पीठ ने दोनों पक्षकारों की लेटर्स पेटेंट अपील कोस्वीकार कर लियाऔर मूल रिट याचिका को पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दिया। 
  • 12.08.2022 कोउच्चतम न्यायालय ने केवल LPA No. 316/2012 (पेंशनभोगियों द्वारा दायर) को योग्यता के आधार पर विचार करने के लिये खण्ड पीठ को वापस भेज दिया। 
  • 26.02.2024 कोउच्च न्यायालय की खंडपीठ ने LPA No. 316/2012 को स्वीकार करते हुए, 2012 के आदेश के उस भाग को अपास्त कर दियाजिसे पेंशनभोगियों ने चुनौती दी थी। 
  • 23.09.2024 कोउच्चतम न्यायालय ने 26.02.2024 के आदेश को चुनौती देने वाली बैंक की याचिका कोखारिज कर दियाविधि के प्रश्न को खुला रखते हुए परंतु विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया। 
  • तत्पश्चात् बैंक ने 23.09.2024 के आदेश को वापस लेने की मांग करते हुए एक विविध आवेदन दायर किया। 
  • 20.12.2024 कोउच्चतम न्यायालय ने MA (Miscellaneous Application) को खारिज करते हुए याचिकाकर्त्ता को उच्च न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर करने की स्वतंत्रता प्रदान कीतथापि उच्चतम न्यायालय में पुनः आने की कोई अतिरिक्त स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई। 
  • 11.04.2025 को उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने पुनर्विचार याचिका संख्या 18/2025 को खारिज कर दिया। 
  • तत्पश्चात् बैंक द्वारा वर्तमान विशेष अनुमति याचिका दायर की गईजिसके माध्यम से पुनर्विचार आदेश तथा मूल निर्णय—दोनों को चुनौती दी गई 

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

विशेष अनुमति याचिका खारिज होने के पश्चात् पुनर्विचार अधिकारिता: 

  • कुन्हयम्मेद बनाम केरल राज्य (2000)औरखोडे डिस्टिलरीज लिमिटेड (2019)का हवाला देते हुए, एक पक्षकार को गैर-स्पष्ट आदेश द्वारा विशेष अनुमति याचिका की साधारण बर्खास्तगी के बाद उच्च न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार में जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं है।  
  • यद्यपियदि उच्च न्यायालय पुनर्विचार अधिकारिता का प्रयोग करने से इंकार करता हैतो विशिष्ट स्वतंत्रता प्रदान किये बिना उसी पक्षकार को फिर से उच्चतम न्यायालय में जाने की अनुमति देना न्यायसंगत और उचित नहीं होगा। 

क्रमिक विशेष अनुमति याचिका और लोक नीति पर: 

  • न्यायालय नेउपाध्याय एंड कंपनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1999)पर विश्वास कियाजिसने यह स्थापित किया कि कोई पक्षकार विशेष अनुमति याचिका वापस लेने के बाद नए सिरे से कार्यवाही दायर करने की अनुमति प्राप्त किये बिना उसी आदेश को दोबारा चुनौती नहीं दे सकता है। 
  • यह सिद्धांत लोक नीति पर आधारित हैजो वादों को वापस लेने के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 23 नियम के समान है और मुकदमेबाजी में अंतिम निर्णय सुनिश्चित करते हुए न्यायाधीशों की मनमानी के विरुद्ध कार्यवाही को हतोत्साहित करता है। 
  • न्यायालय नेसतीश वी.के. बनाम फेडरल बैंक लिमिटेड (2025)के सिद्धांत को लागू कियाजिसमें यह माना गया कि द्वितीय विशेष अनुमति याचिका तब पोषणीय नहीं है जब पिछली विशेष अनुमति याचिका को न्यायालय में पुन: जाने की अनुमति के बिना वापस ले लिया गया होयदि पुनर्विचार असफल हो जाती है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 142 नियम के अनुसार: 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 17वें नियम के अनुसारपुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती। 
  • जब पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती हैतो मूल निर्णय/आदेश बिना किसी विलय के बरकरार रहता हैऔर व्यथित पक्षकार को मूल निर्णय/आदेश को चुनौती देनी चाहियेन कि पुनर्विचार नामंजूरी आदेश को।   

प्रतिष्ठित मनीषा निमेष मेहता मामला: 

  • न्यायालय नेमनीषा निमेश मेहता बनाम ICICI बैंक के निदेशक मंडल (2024) के मामलेको अलग बतायाजहाँ बॉम्बे उच्च न्यायालय ने मामले के गुणदोष पर विचार किये बिना केवल पोषणीयता के आधार पर पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया था।  
  • वर्तमान मामले मेंउच्च न्यायालय ने यह अभिलिखित किया कि उसे ऐसा कोई दोषत्रुटि अथवा अवैधता परिलक्षित नहीं हुईजो पुनर्विचार किये जाने को न्यायोचित ठहराती होऔर यह निष्कर्षपुनर्विचार के सीमित एवं संकीर्ण अधिकारिता के अंतर्गतनिर्णय को बनाए रखने के लिये पर्याप्त माना गया।  

अंतिम सिद्धांत: 

  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी याचिका पर विचार करना लोक नीति के विपरीत होगा और यह उच्चतम न्यायालय के उस पूर्व आदेश पर अपील करने के समान होगा जो अंतिम रूप ले चुका है। 
  • यह सूक्तिकि "interest reipublicae ut sit finis litium” (मुकदमेबाजी का अंत जनहित में हैमुकदमेबाजी को वापस लेने और पुनर्विचार असफल होने के बाद पुन: मुकदमेबाजी को रोकने के लिये पूरी तरह से लागू होती है। 
  • याचिकाकर्त्ता को उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपना मामला उठाने का एक और मौका नहीं दिया जा सकताजबकि प्रारंभिक विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी गई थीवापसी की मांग करने वाली MA को केवल उच्च न्यायालय के समक्ष पुर्नविचार याचिका दायर करने की स्वतंत्रता के साथ वापस ले लिया गया थाऔर पुर्नविचार याचिका भी असफल रही। 

पोषणीयता पर निर्णय: 

  • न्यायालय ने प्रत्यर्थियों द्वारा उठाए गई प्रारंभिक आक्षेप को स्वीकार कर लिया और विशेष अनुमति याचिका को प्रारंभिक चरण में ही पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दिया। 
  • दिनांक 26.02.2024 का मूल निर्णय दोनों पक्षकारों के बीच अंतिम हो गयायद्यपि दिनांक 23.09.2024 के आदेश में निर्देशित अनुसार विधि के प्रश्न (प्रश्नों) को खुला रखा गया। 

विशेष अनुमति याचिका (SLP) क्या है ? 

बारे में: 

  • परिभाषाविशेष अनुमति याचिका भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील करने का एक तंत्र हैजो भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के अधीन प्रदान किया गया है। 
  • दायरासशस्त्र बलों से संबंधित मामलों के सिवायभारत में किसी भी न्यायालय या अधिकरण के किसी भी निर्णयआदेशडिक्री या अवधारण के विरुद्ध याचिका दायर की जा सकती है। 
  • प्रकृति: यह उच्चतम न्यायालय को अपील की सुनवाई करने की अनुमति देता हैभले ही अपील का कोई प्रत्यक्ष अधिकार विद्यमान न हो। 
  • विवेकाधीन शक्ति: विशेष अनुमति देने या अस्वीकार करने का पूर्ण विवेकाधिकार उच्चतम न्यायालय के पास है। 
  • आवेदन : सिविल और आपराधिक दोनों मामलों में उपलब्ध है। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 

  • उत्पत्ति: यह अवधारणा भारत सरकार अधिनियम, 1935 से ली गई है। 
  • विकास: "विशेष अनुमति" शब्द का उल्लेख 1935 के अधिनियम की धारा 110, 205, 206 और 208 में किया गया था 
  • प्रिवी काउंसिल से संबंध: मूल रूप सेविशेष अनुमति His Majesty-in-Council के अधीन प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति द्वारा प्रदान किया जाता था। 
  • सांविधानिक अंगीकरण: भारतीय संविधान ने इस अवधारणा को आवश्यक संशोधनों सहित अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अंगीकृत किया।  

विशेष अनुमति याचिका (SLP) की प्रमुख विशेषताएँ: 

  • अंतिम उपाय:सभी वैकल्पिक विधिक उपचारों के समाप्त हो जाने के पश्चात् विशेष अनुमति याचिका दायर की जाती  है। 
  • अन्याय का आभास: सामान्यतः यह तब दायर की जाती है जब गंभीर अन्याय या महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न विद्यमान हो 
  • अपील में परिवर्तन: यदि अनुमति प्रदान की जाती हैतो याचिका अपील में परिवर्तित हो जाती हैयदि अनुमति अस्वीकृत की जाती हैतो कारण बताना आवश्यक नहीं होता 
  • सांविधानिक अधिकार: उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष अनुमति याचिका के उपचार को सांविधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। 
  • नॉन-ऑब्स्टेंटे क्लॉज़ (Non-Obstante Clause): अनुच्छेद 136 नॉन ऑब्स्टेंटे खंड हैजिसका अर्थ है कि यह अपीलीय अधिकारिता पर लगाए गए विधिक प्रतिबंधों पर वरीयता रखता है 

दायरा और प्रयोज्यता: 

  • विस्तृत परिधि: इसमें न्यायालयों और अर्ध-न्यायिक अधिकरणों के अंतिम और अंतरिम आदेश सम्मिलित हैं।  
  • असाधारण परिस्थितियाँ: उच्चतम न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग केवल अपवादस्वरूप करता हैविशेषकर तब जब सामान्य लोक महत्त्व के विधिक प्रश्न उत्पन्न हों 
  • आत्मारोपित किये गए प्रतिबंध : आपराधिक मामलों में जहाँ तथ्यों पर समवर्ती निष्कर्ष होंवहाँ न्यायालय सामान्यतः हस्तक्षेप नहीं करताजब तक कि निर्णय में विकृतिअनुचितताप्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन अथवा विधि की स्पष्ट त्रुटि न हो 
  • कोई कठोर दिशानिर्देश नहीं : उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 136 की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये कठोर मानक स्थापित करने से इंकार कर दिया हैऔर मामले-दर-मामले विवेक को प्राथमिकता दी है। 

परिसीमा अवधि: 

  • 90 दिन का नियम: उच्च न्यायालय के निर्णय की तिथि से 90 दिनों के भीतर विशेष अनुमति याचिका दायर की जानी चाहिये 
  • 60 दिन का नियम: उच्च न्यायालय के उन आदेशों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार है जिनमें पात्रता प्रमाण पत्र देने से इंकार किया गया है। 

आवेदन प्रक्रिया: 

  • कौन याचिका दायर कर सकता हैकोई भी व्यथित पक्षकार विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर कर सकता है। 
  • आवश्यकताएँमामले के तथ्योंविवाद्यकोंसमयरेखा और विधिक तर्कों का संक्षिप्त सारांश प्रदान करना अनिवार्य है। 
  • न्यायालय की प्रक्रिया: याचिका दायर करने के बादयाचिकाकर्त्ता अपना पक्ष प्रस्तुत करता हैन्यायालय विरोधी पक्ष को नोटिस जारी कर सकता हैजो प्रति-शपथ पत्र प्रस्तुत करता है। 
  • निर्णय: उच्चतम न्यायालय मामले के गुण-दोष के आधार पर अनुमति देने या न देने का निर्णय करता है। 
  • अनुमति मिलने के पश्चात्: यदि अनुमति मिल जाती हैतो मामला सिविल अपील में परिवर्तित हो जाता है और उच्चतम न्यायालय द्वारा इसकी सुनवाई की जाती है। 

विशेष अनुमति याचिका दायर करने के सामान्य आधार: 

  • विधि का महत्त्वपूर्ण प्रश्न 
  • न्याय का घोर उल्लंघन 
  • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन 
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन 

अनुच्छेद 136 के उपबंध: 

  • खंड (1): उच्चतम न्यायालय भारत में किसी भी न्यायालय/अधिकरण के किसी भी निर्णयडिक्रीअवधारणशास्ति या आदेश से अपील करने के लिये विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है। 
  • खंड (2): सशस्त्र बलों से संबंधित विधियों के अधीन न्यायालयों/अधिकरणों के निर्णयों/आदेशों को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है। 

महत्त्वपूर्ण मामले: 

  • लक्ष्मी एंड कंपनी बनाम आनंद आर. देशपांडे (1972) : न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हेतु न्यायालय पश्चातवर्ती घटनाक्रमों पर भी विचार कर सकता है 
  • केरल राज्य बनाम कुन्हयम्मेद (2000): अनुमति देने से इंकार करने से अपीलीय अधिकारिता लागू नहीं होती है। 
  • प्रीतम सिंह बनाम राज्य (1950): उच्चतम न्यायालय को केवल असाधारण परिस्थितियों में ही हस्तक्षेप करना चाहिये 
  • एन. सुरियाकला बनाम ए. मोहंदोस (2007) : अनुच्छेद 136 साधारण अपील न्यायालय की स्थापना नहीं करता हैअपितु न्याय के लिये विवेकाधीन शक्तियां प्रदान करता है। 
  • मथाई जोबी बनाम जॉर्ज (2016) : उच्चतम न्यायालय के अधिकार को सीमित नहीं किया जाना चाहिये अपितु इसका प्रयोग संयमित और समझदारी से किया जाना चाहिये