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सांविधानिक विधि

विशेष अनुमति याचिकाओं की पोषणीयता

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 16-Dec-2025

कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक पेंशनर्स वेलफेयर एसोसिएशन (रजिस्ट्रीकृत) और अन्य 

"एक बार जब किसी विशेष अनुमति याचिका को न्यायालय में दोबारा जाने की स्वतंत्रता के बिना वापस ले लिया जाता हैऔर उच्च न्यायालय के समक्ष पश्चात्वर्ती पुनर्विचार असफल हो जाती हैतो उसी आदेश को चुनौती देने वाली कोई और विशेष अनुमति याचिका पोषणीयता नहीं होती है।" 

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों 

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ नेकांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक पेंशनर्स वेलफेयर एसोसिएशन (रजिस्ट्रीकृत) और अन्य (2025) के मामले मेंविशेष अनुमति याचिका को पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दियाइस बात पर बल देते हुए कि पक्षकार न्यायालय से विशेष अनुमति के बिना पिछली कार्यवाही वापस लेने के बाद उसी आदेश को बार-बार चुनौती नहीं दे सकते। 

कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कांगड़ा सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक पेंशनर्स वेलफेयर एसोसिएशन (रजिस्ट्रीकृत) और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • 15.05.2012 को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने पेंशन संबंधी विवाद्यकों के बारे में CWP No.1679/2010 पर निर्णय देते हुए ऐसे निदेश जारी किये जिनसे बैंक और पेंशनभोगी संघ दोनों नाराज हो गए। 
  • 03.09.2014 कोखण्ड पीठ ने दोनों पक्षकारों की लेटर्स पेटेंट अपील कोस्वीकार कर लियाऔर मूल रिट याचिका को पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दिया। 
  • 12.08.2022 कोउच्चतम न्यायालय ने केवल LPA No. 316/2012 (पेंशनभोगियों द्वारा दायर) को योग्यता के आधार पर विचार करने के लिये खण्ड पीठ को वापस भेज दिया। 
  • 26.02.2024 कोउच्च न्यायालय की खंडपीठ ने LPA No. 316/2012 को स्वीकार करते हुए, 2012 के आदेश के उस भाग को अपास्त कर दियाजिसे पेंशनभोगियों ने चुनौती दी थी। 
  • 23.09.2024 कोउच्चतम न्यायालय ने 26.02.2024 के आदेश को चुनौती देने वाली बैंक की याचिका कोखारिज कर दियाविधि के प्रश्न को खुला रखते हुए परंतु विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया। 
  • तत्पश्चात् बैंक ने 23.09.2024 के आदेश को वापस लेने की मांग करते हुए एक विविध आवेदन दायर किया। 
  • 20.12.2024 कोउच्चतम न्यायालय ने MA (Miscellaneous Application) को खारिज करते हुए याचिकाकर्त्ता को उच्च न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर करने की स्वतंत्रता प्रदान कीतथापि उच्चतम न्यायालय में पुनः आने की कोई अतिरिक्त स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई। 
  • 11.04.2025 को उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने पुनर्विचार याचिका संख्या 18/2025 को खारिज कर दिया। 
  • तत्पश्चात् बैंक द्वारा वर्तमान विशेष अनुमति याचिका दायर की गईजिसके माध्यम से पुनर्विचार आदेश तथा मूल निर्णय—दोनों को चुनौती दी गई 

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

विशेष अनुमति याचिका खारिज होने के पश्चात् पुनर्विचार अधिकारिता: 

  • कुन्हयम्मेद बनाम केरल राज्य (2000)औरखोडे डिस्टिलरीज लिमिटेड (2019)का हवाला देते हुए, एक पक्षकार को गैर-स्पष्ट आदेश द्वारा विशेष अनुमति याचिका की साधारण बर्खास्तगी के बाद उच्च न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार में जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं है।  
  • यद्यपियदि उच्च न्यायालय पुनर्विचार अधिकारिता का प्रयोग करने से इंकार करता हैतो विशिष्ट स्वतंत्रता प्रदान किये बिना उसी पक्षकार को फिर से उच्चतम न्यायालय में जाने की अनुमति देना न्यायसंगत और उचित नहीं होगा। 

क्रमिक विशेष अनुमति याचिका और लोक नीति पर: 

  • न्यायालय नेउपाध्याय एंड कंपनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1999)पर विश्वास कियाजिसने यह स्थापित किया कि कोई पक्षकार विशेष अनुमति याचिका वापस लेने के बाद नए सिरे से कार्यवाही दायर करने की अनुमति प्राप्त किये बिना उसी आदेश को दोबारा चुनौती नहीं दे सकता है। 
  • यह सिद्धांत लोक नीति पर आधारित हैजो वादों को वापस लेने के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 23 नियम के समान है और मुकदमेबाजी में अंतिम निर्णय सुनिश्चित करते हुए न्यायाधीशों की मनमानी के विरुद्ध कार्यवाही को हतोत्साहित करता है। 
  • न्यायालय नेसतीश वी.के. बनाम फेडरल बैंक लिमिटेड (2025)के सिद्धांत को लागू कियाजिसमें यह माना गया कि द्वितीय विशेष अनुमति याचिका तब पोषणीय नहीं है जब पिछली विशेष अनुमति याचिका को न्यायालय में पुन: जाने की अनुमति के बिना वापस ले लिया गया होयदि पुनर्विचार असफल हो जाती है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 142 नियम के अनुसार: 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 17वें नियम के अनुसारपुनर्विचार याचिका खारिज करने वाले आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती। 
  • जब पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी जाती हैतो मूल निर्णय/आदेश बिना किसी विलय के बरकरार रहता हैऔर व्यथित पक्षकार को मूल निर्णय/आदेश को चुनौती देनी चाहियेन कि पुनर्विचार नामंजूरी आदेश को।   

प्रतिष्ठित मनीषा निमेष मेहता मामला: 

  • न्यायालय नेमनीषा निमेश मेहता बनाम ICICI बैंक के निदेशक मंडल (2024) के मामलेको अलग बतायाजहाँ बॉम्बे उच्च न्यायालय ने मामले के गुणदोष पर विचार किये बिना केवल पोषणीयता के आधार पर पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया था।  
  • वर्तमान मामले मेंउच्च न्यायालय ने यह अभिलिखित किया कि उसे ऐसा कोई दोषत्रुटि अथवा अवैधता परिलक्षित नहीं हुईजो पुनर्विचार किये जाने को न्यायोचित ठहराती होऔर यह निष्कर्षपुनर्विचार के सीमित एवं संकीर्ण अधिकारिता के अंतर्गतनिर्णय को बनाए रखने के लिये पर्याप्त माना गया।  

अंतिम सिद्धांत: 

  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी याचिका पर विचार करना लोक नीति के विपरीत होगा और यह उच्चतम न्यायालय के उस पूर्व आदेश पर अपील करने के समान होगा जो अंतिम रूप ले चुका है। 
  • यह सूक्तिकि "interest reipublicae ut sit finis litium” (मुकदमेबाजी का अंत जनहित में हैमुकदमेबाजी को वापस लेने और पुनर्विचार असफल होने के बाद पुन: मुकदमेबाजी को रोकने के लिये पूरी तरह से लागू होती है। 
  • याचिकाकर्त्ता को उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपना मामला उठाने का एक और मौका नहीं दिया जा सकताजबकि प्रारंभिक विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी गई थीवापसी की मांग करने वाली MA को केवल उच्च न्यायालय के समक्ष पुर्नविचार याचिका दायर करने की स्वतंत्रता के साथ वापस ले लिया गया थाऔर पुर्नविचार याचिका भी असफल रही। 

पोषणीयता पर निर्णय: 

  • न्यायालय ने प्रत्यर्थियों द्वारा उठाए गई प्रारंभिक आक्षेप को स्वीकार कर लिया और विशेष अनुमति याचिका को प्रारंभिक चरण में ही पोषणीय न मानते हुए खारिज कर दिया। 
  • दिनांक 26.02.2024 का मूल निर्णय दोनों पक्षकारों के बीच अंतिम हो गयायद्यपि दिनांक 23.09.2024 के आदेश में निर्देशित अनुसार विधि के प्रश्न (प्रश्नों) को खुला रखा गया। 

विशेष अनुमति याचिका (SLP) क्या है ? 

बारे में: 

  • परिभाषाविशेष अनुमति याचिका भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील करने का एक तंत्र हैजो भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के अधीन प्रदान किया गया है। 
  • दायरासशस्त्र बलों से संबंधित मामलों के सिवायभारत में किसी भी न्यायालय या अधिकरण के किसी भी निर्णयआदेशडिक्री या अवधारण के विरुद्ध याचिका दायर की जा सकती है। 
  • प्रकृति: यह उच्चतम न्यायालय को अपील की सुनवाई करने की अनुमति देता हैभले ही अपील का कोई प्रत्यक्ष अधिकार विद्यमान न हो। 
  • विवेकाधीन शक्ति: विशेष अनुमति देने या अस्वीकार करने का पूर्ण विवेकाधिकार उच्चतम न्यायालय के पास है। 
  • आवेदन : सिविल और आपराधिक दोनों मामलों में उपलब्ध है। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 

  • उत्पत्ति: यह अवधारणा भारत सरकार अधिनियम, 1935 से ली गई है। 
  • विकास: "विशेष अनुमति" शब्द का उल्लेख 1935 के अधिनियम की धारा 110, 205, 206 और 208 में किया गया था 
  • प्रिवी काउंसिल से संबंध: मूल रूप सेविशेष अनुमति His Majesty-in-Council के अधीन प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति द्वारा प्रदान किया जाता था। 
  • सांविधानिक अंगीकरण: भारतीय संविधान ने इस अवधारणा को आवश्यक संशोधनों सहित अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अंगीकृत किया।  

विशेष अनुमति याचिका (SLP) की प्रमुख विशेषताएँ: 

  • अंतिम उपाय:सभी वैकल्पिक विधिक उपचारों के समाप्त हो जाने के पश्चात् विशेष अनुमति याचिका दायर की जाती  है। 
  • अन्याय का आभास: सामान्यतः यह तब दायर की जाती है जब गंभीर अन्याय या महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न विद्यमान हो 
  • अपील में परिवर्तन: यदि अनुमति प्रदान की जाती हैतो याचिका अपील में परिवर्तित हो जाती हैयदि अनुमति अस्वीकृत की जाती हैतो कारण बताना आवश्यक नहीं होता 
  • सांविधानिक अधिकार: उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष अनुमति याचिका के उपचार को सांविधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। 
  • नॉन-ऑब्स्टेंटे क्लॉज़ (Non-Obstante Clause): अनुच्छेद 136 नॉन ऑब्स्टेंटे खंड हैजिसका अर्थ है कि यह अपीलीय अधिकारिता पर लगाए गए विधिक प्रतिबंधों पर वरीयता रखता है 

दायरा और प्रयोज्यता: 

  • विस्तृत परिधि: इसमें न्यायालयों और अर्ध-न्यायिक अधिकरणों के अंतिम और अंतरिम आदेश सम्मिलित हैं।  
  • असाधारण परिस्थितियाँ: उच्चतम न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग केवल अपवादस्वरूप करता हैविशेषकर तब जब सामान्य लोक महत्त्व के विधिक प्रश्न उत्पन्न हों 
  • आत्मारोपित किये गए प्रतिबंध : आपराधिक मामलों में जहाँ तथ्यों पर समवर्ती निष्कर्ष होंवहाँ न्यायालय सामान्यतः हस्तक्षेप नहीं करताजब तक कि निर्णय में विकृतिअनुचितताप्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन अथवा विधि की स्पष्ट त्रुटि न हो 
  • कोई कठोर दिशानिर्देश नहीं : उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 136 की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये कठोर मानक स्थापित करने से इंकार कर दिया हैऔर मामले-दर-मामले विवेक को प्राथमिकता दी है। 

परिसीमा अवधि: 

  • 90 दिन का नियम: उच्च न्यायालय के निर्णय की तिथि से 90 दिनों के भीतर विशेष अनुमति याचिका दायर की जानी चाहिये 
  • 60 दिन का नियम: उच्च न्यायालय के उन आदेशों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार है जिनमें पात्रता प्रमाण पत्र देने से इंकार किया गया है। 

आवेदन प्रक्रिया: 

  • कौन याचिका दायर कर सकता हैकोई भी व्यथित पक्षकार विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर कर सकता है। 
  • आवश्यकताएँमामले के तथ्योंविवाद्यकोंसमयरेखा और विधिक तर्कों का संक्षिप्त सारांश प्रदान करना अनिवार्य है। 
  • न्यायालय की प्रक्रिया: याचिका दायर करने के बादयाचिकाकर्त्ता अपना पक्ष प्रस्तुत करता हैन्यायालय विरोधी पक्ष को नोटिस जारी कर सकता हैजो प्रति-शपथ पत्र प्रस्तुत करता है। 
  • निर्णय: उच्चतम न्यायालय मामले के गुण-दोष के आधार पर अनुमति देने या न देने का निर्णय करता है। 
  • अनुमति मिलने के पश्चात्: यदि अनुमति मिल जाती हैतो मामला सिविल अपील में परिवर्तित हो जाता है और उच्चतम न्यायालय द्वारा इसकी सुनवाई की जाती है। 

विशेष अनुमति याचिका दायर करने के सामान्य आधार: 

  • विधि का महत्त्वपूर्ण प्रश्न 
  • न्याय का घोर उल्लंघन 
  • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन 
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन 

अनुच्छेद 136 के उपबंध: 

  • खंड (1): उच्चतम न्यायालय भारत में किसी भी न्यायालय/अधिकरण के किसी भी निर्णयडिक्रीअवधारणशास्ति या आदेश से अपील करने के लिये विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है। 
  • खंड (2): सशस्त्र बलों से संबंधित विधियों के अधीन न्यायालयों/अधिकरणों के निर्णयों/आदेशों को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है। 

महत्त्वपूर्ण मामले: 

  • लक्ष्मी एंड कंपनी बनाम आनंद आर. देशपांडे (1972) : न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हेतु न्यायालय पश्चातवर्ती घटनाक्रमों पर भी विचार कर सकता है 
  • केरल राज्य बनाम कुन्हयम्मेद (2000): अनुमति देने से इंकार करने से अपीलीय अधिकारिता लागू नहीं होती है। 
  • प्रीतम सिंह बनाम राज्य (1950): उच्चतम न्यायालय को केवल असाधारण परिस्थितियों में ही हस्तक्षेप करना चाहिये 
  • एन. सुरियाकला बनाम ए. मोहंदोस (2007) : अनुच्छेद 136 साधारण अपील न्यायालय की स्थापना नहीं करता हैअपितु न्याय के लिये विवेकाधीन शक्तियां प्रदान करता है। 
  • मथाई जोबी बनाम जॉर्ज (2016) : उच्चतम न्यायालय के अधिकार को सीमित नहीं किया जाना चाहिये अपितु इसका प्रयोग संयमित और समझदारी से किया जाना चाहिये