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आपराधिक कानून
सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 की संज्ञेय प्रकृति
«16-Dec-2025
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कामरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य "सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 एक संज्ञेय अपराध है क्योंकि यह पुलिस अधिकारियों को बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, जो इसे धारा 3 और 4 के अधीन असंज्ञेय अपराधों से अलग करती है।" न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह ने कामरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025) के मामले में सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 के अधीन कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया, यह मानते हुए कि यह एक संज्ञेय अपराध है जहाँ पुलिस मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति के बिना अन्वेषण कर सकती है।
कामरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- दिनांक 8.12.2019 को सिकंदरा पुलिस थाने, जिला आगरा में सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 की धारा 13 के अधीन Crime No. 1025/2019 के रूप में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- पुलिस ने आवेदक और सह-अभियुक्त को एक पार्क में कथित तौर पर ताश खेलते हुए गिरफ्तार किया और उनके पास से 750 रुपए बरामद किये गए।
- अन्वेषण अधिकारी ने सूचनाकर्त्ता और साक्षियों के कथनों को अभिलिखित किया और द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन 21.12.2019 को आरोप पत्र प्रस्तुत किया।
- माननीय मजिस्ट्रेट ने दिनांक 24.02.2020 के आदेश द्वारा अपराध का संज्ञान लिया।
- आवेदक ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन संपूर्ण कार्यवाही, आरोप पत्र और समन आदेश को रद्द करने के लिये एक आवेदन दायर किया।
- आवेदक के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश में द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन, पहले अपराध के लिये अधिकतम दण्ड एक मास का कठोर कारावास और 250 रुपए से अधिक का जुर्माना नहीं है, जिससे यह एक असंज्ञेय अपराध बन जाता है।
- अधिवक्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की अनुसूची I भाग II पर विश्वास किया, जो तीन वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराधों को असंज्ञेय, जमानतीय और मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय के रूप में वर्गीकृत करता है।
- राज्य के अधिवक्ता ने आवेदन का विरोध करते हुए तर्क दिया कि द्यूत अधिनियम की धारा 13 एक संज्ञेय अपराध है, जो इसे धारा 3/4 से अलग करती है, और पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का दर्ज करना और अन्वेषण विधिक रूप से वैध था।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने कहा कि उत्तर प्रदेश में द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसमें प्रथम अपराध के लिये अधिकतम एक मास का कारावास और 250 रुपए से अधिक का जुर्माना नहीं लगाया जा सकता है।
- न्यायालय ने पाया कि उत्तर प्रदेश ने उत्तर प्रदेश अधिनियम संख्या 21, 1961 (07.09.1961 से प्रभावी) के माध्यम से धारा 13 में दण्ड को बढ़ा दिया था।
- उत्तर प्रदेश के लिये संशोधित धारा 13 के अधीन, प्रथम बार अपराध करने वालों पर 50 रुपए से 250 रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है और उन्हें एक मास तक का कठोर कारावास दिया जा सकता है, जबकि पश्चात्वर्ती अपराधों में 100 रुपए से 500 रुपए तक का जुर्माना और एक मास से छह मास तक का कठोर कारावास हो सकता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि धारा 13 की भाषा "एक पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकता है" से शुरू होती है, जो स्पष्ट रूप से बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने के लिये पुलिस के अधिकार को इंगित करती है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि संज्ञेय अपराधों में, एक पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, जबकि असंज्ञेय अपराधों में, एक पुलिस अधिकारी को बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने का कोई अधिकार नहीं है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि द्यूत अधिनियम की धारा 13 पुलिस अधिकारियों को बिना वारण्ट के गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, इसलिये इसे असंज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।
- न्यायालय ने माना कि पुलिस को द्यूत अधिनियम की धारा 13 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने और मामलों का अन्वेषण करने का अधिकार है, और माननीय मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लेने में कोई अवैधता या अनियमितता नहीं की।
- न्यायालय ने आवेदन को योग्यताहीन मानते हुए खारिज कर दिया, यह पाते हुए कि आवेदक द्वारा जिन निर्णयों पर विश्वास किया गया था, वे तथ्यों के आधार पर पूरी तरह से भिन्न थे।
- न्यायालय ने विचारण न्यायालय को निदेश दिया कि वह अपराध के लिये दण्ड को ध्यान में रखते हुए, आदेश की प्रमाणित प्रति प्रस्तुत किये जाने की तारीख से तीन मास के भीतर विचारण को शीघ्रता से समाप्त करे।
संज्ञेय और असंज्ञेय अपराधों में क्या अंतर है?
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(ग) (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 2(1)(छ))"संज्ञेय अपराध" को ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करती है जिसके लिये पुलिस अधिकारी प्रथम अनुसूची के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अनुसार बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकता है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(ठ) भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 2(1)(ण)) "असंज्ञेय अपराध" को ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करती है जिसके लिये किसी पुलिस अधिकारी को वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है।
सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 क्या है?
बारे में:
- सार्वजनिक द्यूत अधिनियम, 1867 औपनिवेशिक काल की एक विधि है जो भारत में सार्वजनिक जुआ और सार्वजनिक जुआघरों के संचालन पर रोक लगाता है। राज्य द्वारा किये गए संशोधनों के साथ यह विधि आज भी लागू है।
मुख्य परिभाषा:
- एक "आम जुआघर" कोई भी ऐसा परिसर है जहाँ जुए के उपकरण (ताश, पासे, मेज) मालिक के लाभ के लिये रखे या उपयोग किये जाते हैं, चाहे वह उपकरणों के उपयोग के लिये पैसे लेकर हो या परिसर के उपयोग के लिये जगह लेकर हो।
प्रमुख प्रावधान:
संचालकों के लिये शास्ति (धारा 3):
- जुआघर चलाने वाला मालिक/किराएदार।
- कोई भी व्यक्ति जो जानबूझकर अपनी संपत्ति को जुए के लिये प्रयोग करने की अनुमति देता है।
- कोई भी व्यक्ति जो जुआ संचालन का प्रबंधन करता है या उसमें सहायता करता है।
- कोई भी व्यक्ति जो जुए की क्रियाकलापों को वित्तपोषित करता है।
- दण्ड: 200 रुपए तक का जुर्माना या 3 महीने तक का कारावास।
जुआरियों के लिये शास्ति (धारा 4):
- जुआघर में जुआ खेलते हुए या जुआ खेलने के उद्देश्य से मौजूद पाए जाने वाला कोई भी व्यक्ति।
- उपधारणा: जुआघर में पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को तब तक जुआ खेलने के लिये ही वहाँ मौजूद माना जाता है जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए।
- दण्ड: ₹100 तक का जुर्माना या 1 मास तक का कारावास।
पुलिस शक्तियां (धारा 5-6):
मजिस्ट्रेट या वरिष्ठ पुलिस अधिकारी निम्नलिखित कार्य कर सकते हैं:
- संदिग्ध जुआघरों में प्रवेश करें और तलाशी लें (दिन हो या रात, आवश्यकता पड़ने पर बल का प्रयोग करें)।
- वहाँ मौजूद सभी लोगों को गिरफ्तार करें, चाहे वे सक्रिय रूप से जुआ खेल रहे हों या नहीं।
- जुए के सभी उपकरण, धन और कीमती सामान अभिगृहीत करें।
- जुए के उपकरण मिलना इस बात का सबूत है कि वह जगह जुआघर है।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रावधान:
- मिथ्या पहचान (धारा 7): ₹500 तक का जुर्माना या 1 मास का कारावास।
- उपकरणों को नष्ट करना (धारा 8): अभिगृहीत किये गए जुआ उपकरणों को नष्ट किया जाना चाहिये।
- दांव के सबूत की आवश्यकता नहीं (धारा 9): दोषसिद्धि के लिये यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि लोगों ने पैसे के लिये जुआ खेला था।
- साक्षियों को संरक्षण (धारा 11): सत्य परिसाक्ष्य देने वाले सूचनाकर्त्ता को अभियोजन से छूट प्राप्त है।
- कौशल पर आधारित खेलों को छूट (धारा 12): यह अधिनियम विशुद्ध रूप से कौशल पर आधारित खेलों पर लागू नहीं होता है।
सार्वजनिक जुआ (धारा 13):
पुलिस बिना वारण्ट के किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है:
- सार्वजनिक स्थानों (सड़कों, मुख्य मार्गों) पर ऐसे खेल खेलना जिनमें कौशल की आवश्यकता नहीं होती है।
- सार्वजनिक स्थानों पर जानवरों/पक्षियों को आपस में लड़वाना।
- दण्ड: ₹50 तक का जुर्माना या 1 मास तक का कारावास।
राज्य संशोधन:
उत्तर प्रदेश ने निम्नलिखित प्रावधान जोड़े:
- अपराधों का शमन: विशेष अधिकारी न्यायालय के बाहर मामलों का निपटारा कर सकते हैं।
- विचारणों का समापन: 31 दिसंबर, 2015 से पहले लंबित कुछ छोटे जुए से संबंधित विचारणों को बंद कर दिया गया।