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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

सहकारी माध्यस्थम् न्यायालय और दस्तावेज़ों का उत्पादन

 23-Oct-2025

"केरल उच्च न्यायालय ने सहकारी माध्यस्थम् न्यायालय के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें निर्वाचन संबंधी दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने का निदेश दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि याचिकाओं के आधार पर निर्वाचन संबंधी विवादों के उचित निर्णय के लिये सुसंगत दस्तावेज़ प्रस्तुत किये जाने चाहिये।" 

न्यायमूर्ति के. बाबू 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के. बाबू नेथलापलाम सर्विस को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम सेबेस्टियन पी. जॉर्ज एवं अन्य (2025)के मामले में सहकारी माध्यस्थम् न्यायालय के आदेशों को चुनौती देने वाली एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें विशेष रूप से निर्वाचन विवाद के निपटारे के लिये निर्वाचन संबंधी दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के निदेश को बरकरार रखा गया था। 

थलापलाम सर्विस को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम सेबेस्टियन पी. जॉर्ज एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • याचिकाकर्त्ता, थलापलाम सर्विस को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड ने 16.12.2023 को अपनी प्रबंध समिति के चुनाव आयोजित किये 
  • प्रत्यर्थी 1 से 4 ने चुनाव लड़ा किंतु हार गए, जबकि प्रत्यर्थी 8 से 20 निर्वाचित उम्मीदवार थे।  
  • असफल उम्मीदवारों (प्रत्यर्थी 1 से 4) ने 16.01.2024 को सहकारी माध्यस्थम् न्यायालय, तिरुवनंतपुरम के समक्ष ARC No. 6/2024 दायर करकेचुनाव को चुनौती दी । 
  • माध्यस्थम् मामले में प्रतिवादियों ने स्थिरता के संबंध में प्रारंभिक आपत्ति उठाई, यह तर्क देते हुए कि चुनाव याचिकासांविधिक अवधि से परेदायर की गई थी क्योंकि अंतिम तिथि 15.01.2024 थी।  
  • चूँकि 15.01.2024 को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया था, इसलिये माध्यस्थम् न्यायालय ने सामान्य खण्ड अधिनियम, 1897 की धारा 10 पर विश्वास किया और माना कि 16.01.2024 को दाखिल करना परिसीमा काल के भीतर था, और दिनांक 27.06.2025 के Ext.P8 आदेश के अधीन आपत्ति को खारिज कर दिया। 
  • चुनाव याचिकाकर्त्ताओं ने आरोप लगाया कि अंतिम मतदाता सूची में शामिल लगभग 2000 व्यक्ति बैंक की अधिकारिता सीमा से बाहर के हैं। 
  • इस आरोप के आधार पर, चुनाव याचिकाकर्त्ताओं ने एक आवेदन (Ext.P6) दायर किया, जिसमें सदस्यता रजिस्टर, पहचान पत्र रजिस्टर, निर्वाचन रिकॉर्ड और जांच रिपोर्ट सहित विभिन्न दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की मांग की गई। 
  • माध्यस्थम् न्यायालय ने दिनांक 11.09.2025 के Ext.P9 आदेश के अधीन आवेदन को स्वीकार कर लिया तथा बैंक को अनुरोधित दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का निदेश दिया। 
  • सहकारी बैंक ने अपने सचिव के माध्यम से दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के आदेश को चुनौती देते हुए वर्तमान रिट याचिका दायर की, जिसमें भारी मात्रा में दस्तावेज़ प्रस्तुत करने में कठिनाइयों का हवाला दिया गया। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • याचिकाकर्त्ता ने Ext.P8 आदेश को चुनौती नहीं दी और चुनौती को केवल दस्तावेज़ उत्पादन के निदेश देने वाले Ext.P9 आदेश तक ही सीमित रखा। 
  • न्यायालय ने कहा कि मांगे गए दस्तावेज़ निर्णय के लिये सुसंगत हैं, क्योंकि चुनाव याचिका में विशेष रूप से आरोप लगाया गया था कि अधिकारिता सीमा से बाहर के लगभग 2000 व्यक्तियों को अंतिम मतदाता सूची में शामिल किया गया था। 
  • न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि भ्रमणशील जांच की अनुमति नहीं है, तथा कहा कि माध्यस्थम् न्यायालय को पक्षकारों को अभिवचनों के आधार पर सुसंगत साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति देनी चाहिये 
  • केरल सहकारी समिति अधिनियम, 1969 की धारा 70(3) के अधीन, सहकारी माध्यस्थम् न्यायालय के पास सिविल न्यायालय के समान शक्तियां हैं और वहसुसंगत दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने का आदेश देने के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 11 नियम 14 को लागू कर सकता है। 
  • न्यायालय ने विवादित आदेश में कोई अनियमितता नहीं पाई और रिट याचिका को खारिज कर दिया। 
  • न्यायालय ने कहा कि सहकारी बैंक (प्रतिवादी पक्ष नहीं) ने कठिनाइयों का हवाला देते हुए याचिका दायर की, जबकि वास्तविक प्रत्यर्थियों में से किसी ने भी आदेश को चुनौती नहीं दी, जिससे याचिका की योग्यता और कम हो गई। 
  • खारिज होने के बावजूद, न्यायालय ने माध्यस्थम् न्यायालय द्वारा अपेक्षित दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिये दो सप्ताह का समय दिया। 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 11 नियम 14 क्या है? 

बारे में: 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 11 नियम 14 एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक उपबंध है जोन्यायालयों को सिविल वाद के लंबित रहने के दौरान दस्तावेज़ों को पेश करने का आदेश देने की अनुमति देता है। 
  • यह नियम एक महत्त्वपूर्ण खोज तंत्र के रूप में कार्य करता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी सुसंगत दस्तावेज़ निष्पक्ष निर्णय के लिये न्यायालय को उपलब्ध कराए जाएं। 

सांविधिक ढाँचा और विवेकाधीन शक्ति: 

  • सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 11 नियम 14 सिविल वादों में खोज और निरीक्षण पर एक प्रक्रियात्मक विधि सिद्धांत है। 
  • यह नियम न्यायालय को वाद के किसी भी पक्षकार को उसकी शक्ति या नियंत्रण के भीतर दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का निदेश देने का अधिकार देता है। 
  • "यह वैध होगा"यह भाषा अनुमोदक है, अनिवार्य नहीं, यह न्यायालय को विवेकाधिकार प्रदान करता है, कर्त्तव्य नहीं। 

अस्थायी दायरा वाद के लंबित रहने तक सीमित: 

  • नियम 14 के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग केवल "किसी वाद के लंबित रहने के दौरान" ही किया जा सकता है। 
  • उत्पादन का आदेश वाद लंबित रहने के दौरान ही दिया जाना चाहिये, वाद समाप्त होने के बाद नहीं। 
  • एक बार वादपत्र खारिज हो जाने पर इस नियम को लागू नहीं किया जा सकता। 
  • एक बार जब कोई वाद आरंभिक चरण में ही खारिज कर दिया जाता है, तो लंबित वादों पर लागू प्रक्रियाएँ अप्रासंगिक हो जाती हैं। 

दस्तावेज़ों की प्रासंगिकता - विवादगत विवाद्यकों के संदर्भ में: 

  • दस्तावेज़ वाद में विवादित विवाद्यकों से सुसंगत होने चाहिये।  
  • दस्तावेज़ों का विवादित तथ्यों या सुलझाए जाने वाले विवाद्यकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध होना चाहिये 
  • इससे संपार्श्विक या अप्रासंगिक जानकारी की खोज को रोका जा सकेगा। 
  • प्रस्तुतीकरण चाहने वाले पक्षकार को प्रथम दृष्टया भौतिकता और सुसंगतता का मामला स्थापित करना होगा।  

शपथ पत्र या शपथ की आवश्यकता: 

  • न्यायालय गंभीर प्रतिज्ञान सुनिश्चित करने के लिये शपथ के अधीन पेश होने का आदेश दे सकता है। 
  • यह सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करता है कि प्रस्तुत दस्तावेज़ प्रामाणिक और विश्वसनीय हों। 
  • इससे छेड़छाड़ या कूटरचना का जोखिम न्यूनतम हो जाता है। 

प्रस्तुत दस्तावेज़ों को संभालने में न्यायिक विवेक: 

  • न्यायालय "ऐसे दस्तावेज़ों के साथ, जब वे प्रस्तुत किये जाएं, ऐसी रीति से व्यवहार कर सकता है जो न्यायसंगत प्रतीत हो।" 
  • न्यायालय उन्हें साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर सकता है, सुसंगतता के अभाव में उन्हें नजरअंदाज कर सकता है, या उन्हें आगे की जांच के अधीन कर सकता है। 

प्रक्रियात्मक स्वरूप - मूल अधिकार नहीं: 

  • आदेश 11 नियम 14 एकप्रक्रियात्मक उपकरण है और यह मूल अधिकार प्रदान नहीं करता है। 
  • न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि न्याय के हित में ऐसा प्रस्तुतीकरण आवश्यक है। 

सीमाएँ और वैकल्पिक रास्ते: 

  • नियम 14 की पहुँच अन्य प्रक्रियात्मक विकल्पों के अस्तित्व के कारण सीमित है। 
  • नियम 14 का प्रयोग तभी किया जाना चाहिये जब ऐसा प्रत्यक्ष विकल्प संभव न हो। 

पारिवारिक कानून

अनुसूचित जनजातियों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम पर लागू नहीं है

 23-Oct-2025

"हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 अनुसूचित जनजातियों पर तब तक लागू नहीं हो सकता जब तक कि केंद्र सरकार इस संबंध में अधिसूचना जारी न कर दे।" 

न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

नवांग एवं अन्य बनाम बहादुर एवं अन्य (2025)के मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ नेहिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा जारी निदेशों को अपास्त कर दिया, जिसमें आदिवासी क्षेत्रों में पुत्रियों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) लागू करने की मांग की गई थी, जिसमें इस बात पर बल दिया गया था कि अनुसूचित जनजातियों के संबंध में सांविधिक प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिये 

नवांग एवं अन्य बनाम बहादुर एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • सिविल अपील हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा RSA No. 8/2003 में 23 जून, 2015 को पारित निर्णय के विरुद्ध दायर की गई थी। 
  • उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय के पैराग्राफ 63 में निदेश जारी करते हुए कहा था कि हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में पुत्रियों कोसंपत्ति का उत्तराधिकार, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार मिलेगा, न कि रीति-रिवाजों और प्रथाओं के अनुसार। 
  • उच्च न्यायालय का तर्क महिलाओं के प्रति सामाजिक अन्याय और शोषण को रोकना था, तथा इस बात पर बल दिया गया कि "यदि समाज को प्रगति करनी है तो विधियों को समय के साथ विकसित होना होगा।"  
  • अपीलकर्त्ताओं ने इस विशिष्ट निदेश को मामले के दायरे से बाहर तथा स्थापित विधिक प्रावधानों के विपरीत बताते हुए चुनौती दी। 
  • अनुसूचित जनजातियों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की प्रयोज्यता का विवाद्यक न तो प्रत्यक्ष रूप से और न ही मूल रूप से पक्षकारों के बीच मूल सिविल कार्यवाही में सम्मिलित था। 
  • उच्च न्यायालय द्वारा जारी निदेश न्यायालय द्वारा तैयार किये गए किसी विवाद्यक या पक्षकारों द्वारा उठाई गई/उठाए गए अभिवचनों से उत्पन्न नहीं हुए। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय नेतिरिथ कुमार एवं अन्य बनाम दादूराम एवं अन्य (2024) के मामलेमें अपने हालिया निर्णय पर विश्वास किया, जो अनुसूचित जनजातियों पर हिंदू विधि के लागू होने से संबंधित था। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया किभारतीय संविधान, 1950 (COI) केअनुच्छेद 341 और 342 के अनुसार किसी भी जनजाति को अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत या गैर-अधिसूचित करने के लिये राष्ट्रपति की अधिसूचना की आवश्यकता होती है।  
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2)में स्पष्ट रूप से कहा गया है: "इस अधिनियम में निहित कोई भी बात संविधान के अनुच्छेद 366 के खण्ड (25) के अर्थ के भीतर किसी भी अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होगी, जब तक कि केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा अन्यथा निदेश न दे।" 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 2(2) के शब्द स्पष्ट हैं और विधि की स्थिति सुस्थापित है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं हो सकता। 
  • सर्वोच्च न्यायालय नेमधु किश्वर बनाम बिहार राज्य (1996) मामलेका हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि न तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, न ही भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, और न ही शरीयत विधि, रीति-रिवाज से शासित आदिवासियों पर लागू होता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय के निदेश जारी नहीं किये जा सकते थे, विशेषकर ऐसे मामले में जहाँ विवाद्यक न तो प्रत्यक्ष रूप से और न ही मूल रूप से मामले से जुड़ा था। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ये निदेश न्यायालय द्वारा तैयार किये गए किसी विवाद्यक या पक्षकारों द्वारा उठाए गए अभिवचनों से उत्पन्न नहीं हुए हैं। 
  • निदेश वाले विवादित निर्णय के पैराग्राफ 63 कोअपास्त कर दिया गया तथा उसे अभिलेख से हटाने का आदेश दिया गया। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 क्या है और अनुसूचित जनजातियों पर इसकी प्रयोज्यता क्या है? 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के बारे में: 

  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) हिंदुओं में विरासत और उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाली एक व्यापक विधि है। 
  • यह अधिनियम हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों पर लागू होता है, किंतु इसमें कुछ विशेष अपवाद भी हैं। 
  • इसमें बिना वसीयत के मृत्यु होने पर उत्तराधिकार और वसीयती उत्तराधिकार दोनों का प्रावधान है। 
  • पैतृक संपत्ति में पुत्रियों को समान अधिकार देने के लिये 2005 में अधिनियम में संशोधन किया गया था। 

अनुसूचित जनजातियों पर प्रयोज्यता: 

  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2)अनुसूचित जनजातियों के लिये एक विशिष्ट अपवर्जन बनाती है। 
  • उपबंध में कहा गया है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम किसी भी अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना जारी कर अन्यथा निदेश न दे। 
  • यह अपवर्जन जनजातीय समुदायों के विशिष्ट प्रथागत विधियों और प्रथाओं को मान्यता देता है। 
  • अनुसूचित जनजातियों कोभारत के संविधान केअनुच्छेद 366(25) के अधीन परिभाषित किया गया है। 
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 366(25) "अनुसूचित जनजातियों" की आधिकारिक परिभाषा विशिष्ट जनजातियों, जनजातीय समुदायों या ऐसे समुदायों के भीतर समूहों के रूप में प्रदान करता है जिन्हें अनुच्छेद 342 के अधीन औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त है।