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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 के अधीन विधवा बहनों को आश्रित के रूप में सम्मिलित किया जाना

 30-Oct-2025

"उच्चतम न्यायालय ने कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 में 'आश्रित' की परिभाषा को उचित संशोधन के लिये विधि आयोग को भेज दिया, क्योंकि वर्तमान समय में अवयस्क विधवा बहनों को ढूंढना व्यावहारिक रूप से असंभव है।" 

न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और मनमोहन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और मनमोहन की पीठ नेद न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम कोग्गा एवं अन्य (2025)के मामले में अपील को खारिज कर दिया, किंतु कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 के अधीन 'आश्रित' की परिभाषा में उपयुक्त संशोधन के लिये मामले को भारत के विधि आयोग को भेज दिया। 

न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम कोग्गा एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह अपील 5 अक्टूबर, 2009 को कर्नाटक उच्च न्यायालय, बैंगलोर द्वारा M.F.A संख्या 7194/2005 (WC) में पारित निर्णय से उत्पन्न हुई थी। 
  • मृतक कर्मचारीकी दो विधवा बहनें (प्रत्यर्थी संख्या 3 और 4) जीवित थीं, जो उसकी मृत्यु के समय अवयस्क नहीं थीं, अपितु उस पर आश्रित थीं। 
  • आयुक्त नेकर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 के अधीनमृतक कर्मचारी की विधवा बहनों को उसका आश्रित माना था और उनके पक्ष में प्रतिकर देने का आदेश दिया था। 
  • अपीलकर्त्ता-बीमा कंपनी ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि दोनों विधवा बहनें, संविधि के अधीन मृतक कर्मचारी केआश्रित के रूप में योग्य नहीं हैं। 
  • बीमा कंपनी ने तर्क दिया कि कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 की धारा 2(1)()(iii)(घ) के अनुसार, केवल "अवयस्क भाई, या अविवाहित बहन या विधवा बहन (यदि अवयस्क हो)" को आश्रित माना जा सकता है। 
  • चूँकि मृतक की मृत्यु के समय विधवा बहनें अवयस्क नहीं थीं, इसलिये अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि उन्हें प्रतिकर का हकदार नहीं माना जाना चाहिये 
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विधवा बहनों को प्रतिकर देने के आयुक्त के निर्णय को बरकरार रखा था, भले ही वे अवयस्क नहीं थीं। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने प्रारंभ में 17 अगस्त, 2023 को अपना निर्णय सुरक्षित रखा था, किंतु 24 अगस्त, 2023 को मामले को फिर से सूचीबद्ध किया, यह निर्णय लेते हुए कि धारा 2(1)()(iii)() के निर्वचन के संबंध में भारत संघ से उचित सहायता की आवश्यकता होगी। 
  • यद्यपि, अपील को खारिज कर दिया गया, तथा विधि का प्रश्न भविष्य में विचार के लिये खुला छोड़ दिया गया। 
  • न्यायालय ने कहा कि कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 में अधिनियमित किया गया था, और धारा 2(1)()(iii)(घ) में 'आश्रित' की परिभाषा काअर्थ है "अवयस्क भाई या अविवाहित बहन या विधवा बहन यदि अवयस्क हो"। 
  • न्यायालय ने कहा कि "वर्तमान समय में, सामान्यतः कोई भी विधवा बहन अवयस्क नहीं मिलेगी, विशेषकर हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद।" 
  • न्यायालय का विचार था कि उपरोक्त उपबंध या 1923 के अधिनियम में किसी अन्य उपबंध में उपयुक्त संशोधन के लिये मामले पर भारत के विधि आयोग द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने निदेश दिया कि आदेश की एक प्रति विधि एवं न्याय मंत्रालय के सचिव को भेजी जाए, जो इसे आगे भारतीय विधि आयोग के अध्यक्ष को भेज सकते हैं। 
  • न्यायालय ने रजिस्ट्री को यह भी निदेश दिया कि वह अपील खारिज होने की सूचना प्रत्यर्थियों को भेजे, जिससे वे कर्नाटक उच्च न्यायालय में जमा राशि निकाल सकें। 
  • यदि किसी प्रत्यर्थी की मृत्यु हो गई हो तो उनके विधिक उत्तराधिकारियों को उस राशि के साथ-साथ उस पर अर्जित ब्याज (यदि कोई हो) भी निकालने की अनुमति दी गई थी। 

कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 क्या है? 

बारे में: 

  • कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 (जिसे पहले कर्मकार क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 के नाम से जाना जाता था) एक सामाजिक सुरक्षा विधि है, जो नियोजन के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं के मामले में कर्मचारियों और उनके आश्रितों को प्रतिकर प्रदान करने के लिये बनाई गई है। 
  • यह अधिनियम कार्य से संबंधित क्षति, विकलांगता या मृत्यु की स्थिति में श्रमिकों और उनके परिवारों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करने के लिये अधिनियमित किया गया था 
  • अधिनियम में 'आश्रित' की परिभाषा में मृतक कर्मचारी के कुछ ऐसे नातेदारों को सम्मिलित किया गया है जो मृत्यु के समय कर्मचारी की कमाई पर पूर्णतः या आंशिक रूप से निर्भर थे। 

धारा 2(1)(घ) के अधीन 'आश्रित' की परिभाषा: 

  • कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 की धारा 2(1)(घ) यह परिभाषित करती है कि प्रतिकर का दावा करने के उद्देश्य से मृतक कर्मचारी के 'आश्रित' के रूप में कौन पात्र है। 
  • इस परिभाषा में विभिन्न श्रेणियों के नातेदार सम्मिलित हैं, जैसे विधवा, अवयस्क वैध या दत्तक पुत्र, अविवाहित वैध या दत्तक पुत्री, तथा विधवा माता। 
  • धारा 2(1)()(iii)(घ) में विशेष रूप से "अवयस्क भाई, या अविवाहित बहन या विधवा बहन (यदि अवयस्क हो)" को आश्रितों के रूप में उल्लेख किया गया है। 
  • इस उपबंध के अनुसार विधवा बहन को आश्रित के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिये अवयस्क होना आवश्यक है, जो आधुनिक समय में व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न करती है। 

वर्तमान परिभाषा के साथ व्यावहारिक चुनौतियाँ: 

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधिनियमन के पश्चात् विवाह के लिये न्यूनतम आयु को विनियमित कर दिया गया, जिससे बाल विवाह अवैध हो गया। 
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में प्रारंभ में लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 15 वर्ष विहित की गई थी (बाद में 1978 में इसे बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया)। 
  • बाल विवाह पर इन विधिक प्रतिबंधों को देखते हुए, "अवयस्क विधवा बहन" का परिदृश्य व्यावहारिक रूप से असंभव या अत्यंत दुर्लभ हो गया है। 
  • कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम का पुराना प्रावधान 1923 के बाद हुए सामाजिक परिवर्तनों और विधिक सुधारों को ध्यान में रखने में असफल रहता है। 

संशोधन की आवश्यकता: 

  • विधि आयोग को दिये गए उच्चतम न्यायालय के संदर्भ में यह स्वीकार किया गया है कि समकालीन सामाजिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिये विधि को अद्यतन करने की आवश्यकता है। 
  • संशोधन से यह सुनिश्चित होगा कि विधवा बहनें, जो वास्तव में अपने मृत भाई पर निर्भर हैं, प्रतिकर प्राप्त कर सकेंगी, चाहे वे अवयस्क हों या नहीं। 
  • इस तरह के सुधार से कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम को सामाजिक न्याय के सिद्धांतों और श्रम विधान के कल्याणकारी उद्देश्यों के साथ संरेखित किया जा सकेगा। 
  • विधि आयोग परिभाषा का विस्तार कर इसमें सभी आश्रित विधवा बहनों को सम्मिलित करने या आश्रितता निर्धारित करने के मानदंडों को संशोधित करने पर विचार कर सकता है। 

पारिवारिक कानून

जन्म प्रमाण पत्र में दत्तक बालकों को सम्मिलित करना

 30-Oct-2025

"उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किशोर न्याय अधिनियम, हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के अधीन किये गए दत्तक पर लागू नहीं होता है, तथा ऐसे दत्तक के लिये जिला मजिस्ट्रेट के दत्तक आदेश की आवश्यकता नहीं होती है।" 

न्यायमूर्ति एम. धंदापानी 

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. धंदापानी ने ए. कन्नन बनाम संघ राज्य क्षेत्र पुडुचेरी एवं अन्य (2025)के मामले मेंउस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें दत्तक माता-पिता के नाम को दर्शाने के लिये जन्म प्रमाण पत्र को संशोधित करने के याचिकाकर्त्ता के अनुरोध को खारिज कर दिया गया था, तथाहिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 बनाम किशोर न्याय अधिनियम की प्रयोज्यता को स्पष्ट किया गया था। 

ए. कन्नन बनाम केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • याचिकाकर्त्ता ए. कन्नन ने 27.1.2006 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार के. शीला से विवाह किया, किंतु दंपति को वैवाहिक जीवन से कोई संतान नहीं हुई। 
  • 2022 में, उन्हें पता चला कि 18 वर्षीय महिला विजयलक्ष्मी ने 26.4.2022 को क्लूनी अस्पताल, पुडुचेरी में एक बच्चे को जन्म दिया था और गरीबी के कारण वह बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ थी। 
  • याचिकाकर्त्ता और उसकी पत्नी नेबच्चे को दत्तक की इच्छाव्यक्त की, जिस पर विजयलक्ष्मी और उसके माता-पिता (बच्चे के दादा-दादी) पी. सकारापानी और एस. सुधा ने सहमति दे दी।  
  • 5.5.2022 को, हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार पुजारी धंदापानी शर्मा द्वारा "दत्त होमम" समारोह किया गया, जिससे दत्तक की औपचारिकता पूरी हुई। 
  • बाद में उप रजिस्ट्रार, पुडुचेरी के समक्ष रजिस्ट्रीकृत दत्तक विलेखदिनांक 7.9.2022 (दस्तावेज़ संख्या 1595/2022) के माध्यम से दत्तक को मान्य किया गया । 
  • 2.10.2022 को नामकरण संस्कार किया गया और बच्ची का नाम 'के.एस. सात्विक' रखा गया।  
  • याचिकाकर्त्ता ने पुडुचेरी के प्रधान जिला मुंसिफ के समक्ष O.S. No.189/2023 में एक वाद दायर किया, जिसमें यह घोषित करने की मांग की गई कि के.एस. सात्विका याचिकाकर्त्ता और उसकी पत्नी की वैध रूप से दत्तक पुत्री थी। 
  • 30.11.2023 को याचिकाकर्त्ता के पक्ष में वाद का आदेश पारित किया गया, जिसमें कोई अपील दायर नहीं की गई, जिससे आदेश अंतिम हो गया।  
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने तीसरे प्रत्यर्थी (उप रजिस्ट्रार, जन्म एवं मृत्यु रजिस्ट्रार) से संपर्क किया, जिससे जन्म प्रमाण पत्र में बच्चे का दत्तक नाम और दत्तक माता-पिता का नाम सम्मिलित करने के लिये संशोधन किया जा सके। 
  • तीसरे प्रत्यर्थी नेकार्यवाही संख्या 348PM/RB&D/2024 दिनांक 19.02.2024 के अधीनआवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्त्ता को जिला मजिस्ट्रेट से दत्तक के आदेश के लिये किशोर न्याय प्राधिकरण से संपर्क करना चाहिये था। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम बनाम किशोर न्याय अधिनियम की प्रयोज्यता पर: 

  • न्यायालय ने कहा कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 56(3) में स्पष्ट रूप से कहा गया है: "इस अधिनियम की कोई भी बात हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के अधीन किये गए बच्चों के दत्तक पर लागू नहीं होगी।" 
  • हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम एक स्व-निहित संहिता है जो दो हिंदुओं के बीच दत्तक की प्रक्रिया का उपबंध करती है तथा यह निर्धारित करती है कि कौन इस प्रकार के दत्तक के लिये पात्र है।  
  • धारा 56(3) के मद्देनजरकिशोर न्याय अधिनियम का हिंदू पर्सनल लॉ परकोई प्रभाव नहीं होगा । 

विभिन्न अधिनियमों के अंतर्गत बच्चे की पात्रता पर: 

  • न्यायालय ने कहा कि विचाराधीन बालक न तो "परित्यक्त बालक", "विधि से संघर्षरत बालक", "अनाथ" था, न ही किशोर न्याय अधिनियम के अधीन परिभाषित "अभित्यक्त बालक" था। 
  • दत्तक विनियम, 2022 का विनियमन 4 केवल किशोर न्याय अधिनियम द्वारा शासित बालकों पर लागू होता है, हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम जैसी व्यक्तिगत विधियों के अधीन दत्तक बालकों पर नहीं। 
  • याचिकाकर्त्ता का दत्तक बच्चा किशोर न्याय अधिनियम की धारा 2 की उपधारा (1), (13), (42) और (60) के अंतर्गत नहीं आता है। 

वर्तमान मामले में दत्तक की वैधता पर: 

  • न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता और जैविक माता दोनों हीहिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम के अधीन दत्तक लेने और देने के पात्र हैं।   
  • जबकि हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम की धारा 9 के अधीन माता-पिता दोनों की सहमति की आवश्यकता होती है, न्यायालय ने कहा कि जैविक पिता की पहचान अज्ञात है, तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अधीन कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है, जिससे पिता की सहमति की आवश्यकता लागू नहीं होती।  
  • जैविक माता ने बच्चे को दत्तक दिया था, जैसा कि O.S. No.189/2023 में उसके कथन से स्पष्ट है, और दादा-दादी द्वारा दत्तक लेने के कार्य को निष्पादित करने से माता की सहमति से यह अवैध नहीं हुआ। 

सिविल न्यायालय की डिक्री पर: 

  • सिविल न्यायालय ने विचारण और साक्षियों की सुनवाई के बाद घोषणा और व्यादेश देने का आदेश दिया था, और यह आदेश अंतिम हो गया था। 
  • प्रत्यर्थी वाद में पारित आदेश से बंधे हैं, जिसे प्रशासनिक आदेश द्वारा अपास्त नहीं किया जा सकता। 

दत्तक विधियों के उद्देश्य पर: 

  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किशोर न्याय अधिनियम और हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम दोनों ही बच्चों को आश्रय और सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से बनाई गई उदार विधि हैं।  
  • दत्तक की प्रक्रिया से परिवार के भीतर बच्चे की स्थायी देखरेख और सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिये, तथा बच्चे की शारीरिक, भावनात्मक, संबंधपरक और शैक्षिक आवश्यकताओं की रक्षा होनी चाहिये 

अंतिम निदेश: 

  • न्यायालय ने विवादित आदेश को अपास्त कर दिया और तीसरे प्रत्यर्थी को निदेश दिया कि वह चार सप्ताह के भीतरबच्चे (के.एस. सात्विक) का नाम और दत्तक माता-पिता के रूप में याचिकाकर्त्ता और उसकी पत्नी के. शीला के नाम को सम्मिलित करते हुए एक नया जन्म प्रमाण पत्र जारी करे। 

हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 क्या है? 

बारे में: 

  • हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (HAM Act) एक विधि है जो भारत में हिंदुओं के बीच दत्तक तथा भरण-पोषण को नियंत्रित करता है। 
  • यह उन लोगों पर लागू होता है जो धर्म से हिंदू हैं, जिनमें बौद्ध, जैन और सिख सम्मिलित हैं। 
  • यह अधिनियम हिंदुओं में दत्तक तथा भरण-पोषण से संबंधित विधि को समेकित और संशोधित करता है। 

धारा 6 – विधिमान्य दत्तक की अपेक्षाएँ : 

कोई भी दत्तक विधिमान्य नहीं होगा जब तक कि: 

  • दत्तक लेने वाला व्यक्ति दत्तक लेने की सामर्थ्य और अधिकार न रखता हो 
  • दत्तक देने वाला व्यक्ति ऐसा करने की सामर्थ्य न रखता हो  
  • दत्तक व्यक्ति दत्तक में लिये जाने योग्य न हो 
  • दत्तक इस अध्याय में वर्णित अन्य शर्तों के अनुवर्तन में न किया गया हो।  

धारा 9 – दत्तक देने के लिये सक्षम व्यक्ति: 

  • केवल अपत्य के पिता, माता या संरक्षक ही अपत्य को दत्तक दे सकते हैं। 

यदि पिता जीवित है तो उसे दत्तक देने का प्राथमिक अधिकार है, किंतु इसके लिये माता की सहमति आवश्यक है, जब तक कि उसने संसार त्याग न दिया हो, हिंदू न रह गई हो, या उसे मानसिक रूप से विकृत घोषित न कर दिया गया हो। 

यदि पिता की मृत्यु हो गई हो, उसने संसार त्याग दिया हो, हिंदू नहीं रहा हो, या उसे मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित कर दिया गया हो, तो माता अपत्य को दत्तक दे सकती है। 

जहाँ माता-पिता दोनों की मृत्यु हो गई हो, उन्होंने संसार त्याग दिया हो, अपत्य को त्याग दिया हो, या उन्हें विकृत-चित्त घोषित कर दिया गया हो, या जहाँ माता-पिता का नाम अज्ञात हो, वहाँ संरक्षक न्यायालय की अनुमति से अपत्य को दत्तक दे सकता है। 

न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि दत्तक लेना अपत्य के कल्याण के लिये है तथा न्यायालय द्वारा स्वीकृत के अलावा कोई संदाय या इनाम नहीं दिया गया है। 

किशोर न्याय अधिनियम से अंतर: 

हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम हिंदू पर्सनल लॉ के अंतर्गत दत्तक के लिये एक स्व-निहित संहिता है। 

किशोर न्याय अधिनियम की धारा 56(3) स्पष्ट रूप से हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम के अधीन किये गए दत्तक लेने को इसके प्रावधानों से छूट देती है। 

हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम में बाल कल्याण समितियों या जिला मजिस्ट्रेट के दत्तक लेने के आदेश की आवश्यकता नहीं है।